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विषधर / प्राणेश कुमार

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<poem>
तुम
हमारी पदचाप महसूस कर
किसी अँधेरे कोने में
किसी सीलन भरे गड्ढे में
किसी दरवाज़े के अगल बगल
डरकर नहीं छिपते !

तुम
इतने शर्मीले भी नहीं हो कि
किसी पर नज़र पड़ते ही
अपने चेहरे को अपने शरीर से
छिपाकर दुबक जाओ !

तुम्हारी देह को छूने से
तुम किसी बर्फ की तरह
ठंडे भी नहीं लगते !
गर्मजोशी से भरे तुम
किसी से डरते नहीं
न तो किसी को देख छिपते हो
तुम अपनत्व से भरे
शुभचिंतकों की तरह मिलते हो
तुम्हारी जिह्वा से फूल झरते हैं !
जब लोग तुम्हारी मीठी बातों में
आकर तुम्हें
समझने लगते हैं
अपना सबसे बड़ा हितचिन्तक,
जब तुम्हारी सुरक्षा में
अपना सर्वस्व सौंपकर
आश्वस्त होते हैं
तब तुम
दिखाते हो अपना विष
और फिर
कई कई पीढ़ियों को
डँसते हो तुम
तुम्हारा सहस्रफण
एक साथ फुफकारते हैं
उगलते हैं विष
और
कर देते हैं समाप्त
भाईचारा अपनापन
कानून संविधान
और सबकुछ !
</poem>
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