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पटकथा / पृष्ठ 2 / धूमिल

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खाकर-निरापद भाव से
बच्चे जनते रहे।
योजनायें योजनाएँ चलती रहीं
बन्दूकों के कारखानों में
जूते बनते रहे।
और बाहर मुर्दे पड़े हैं
विधवायें तमगा लूट रहीं हैं
सधवायें सधवाएँ मंगल गा रहीं हैं
वन-महोत्सव से लौटी हुई कार्यप्रणालियाँ
अकाल का लंगर चला रही हैं
बारूद का सबसे बड़ा गोदाम है
अखबार के मटमैले हासिये पर
लेटे हुये हुए,एक तटस्थ और कोढ़ी देवता काशांतिवाद ,नाम है
यह मेरा देश है…
यह मेरा देश है…
फैला हुआ
जली हुई मिट्टी का ढेर है
जहाँ हर तीसरी जुबान ज़ुबान का मतलब-
नफ़रत है।
साज़िश है।
जनता क्या है?
एक शब्द… सिर्फ एक शब्द है:
कुहरा,कीचड़ और कांच से
बना हुआ…
एक भेड़ है
जो ढलान पर
हर आती-जाती हवा की जुबान में
हाँऽऽ.. हाँऽऽ करता है
क्योंकि अपनी हरियाली से
डरता है।
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