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<poem>
जब तुम्हारे द्वारा कहे तीखे शब्दों से
हलक में एक फांस-सी चुभ गई थी...

भीतर ही भीतर न जाने
कितने ज्वालामुखी धधकते रहे रातभर
विषाक्त धुएँ से जलती रही थी आँखें

और गर्म लावा पिघल पिघल कर
मन पर फफोले करता रहा...
असहनीय पीड़ा झेलती
खूब रोई थी उस रात
शायद मेरे जीवन की सबसे लंबी रात थी वो

पर तुम्हें किसी प्रकार से भी किसी भी तरह
पीड़ित या दुःखी करने का खयाल दूर दूर तक नहीं आया
आता भी कैसे
तुम वही तो थे मेरे साथी
जिसे मैंने अपनी कितनी ही
मन्नतों और प्रार्थनाओं से पाया था

स्वयं को समर्पित कर सौंप दिया था तुम्हें
रंग लिया था ख़ुद को तुम्हारे हर रंग में
और हरदम कहा करती थी तुमसे
मेरे सारे रंग अब तुमसे हैं!

जाने तुम्हें याद है कि नहीं
खैर...!

अब तय किया है मैंने
खुद को एक वीरान देवालय में बदल डालूंगीं
जहाँ कोई न आ जा सके
सारी प्रार्थनाएँ अस्वीकृत हो
और लोग एक बुत के सिवा मुझे कुछ न समझे

हे ईश्वर तुम्हारा शुक्रिया
मुझे शांति, संयम धीरज
और मौन देने के लिए!
</poem>
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