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<poem>
सीधे शब्दो में उससे कहा था
मुझे तुमसे प्रेम है!

मुझसे शायद ऐसा इसलिए कहा गया की
बड़े बड़े महाकवियों द्वारा
सुंदर ऒर सशक्त तरीके से
प्रेम वर्णित करने के उपरान्त भी
आजतक नहीं इजाद हो पायी
प्रेम की कोई विशिष्ट भाषा

हालांकि मैंने उससे ये भी कहा...
की ये कतई ज़रूरी नहीं
अगर मैं प्रेम में हूँ ...
तो तुम भी प्रेम में होओ
मैं बस तुम्हें कहकर ख़ुद में
एक निश्चितता भरना चाहती हूँ
ताकि अंत तक
मन पर कोई बोझ न रहे मेरे

पर फिर भी कहूँगी
अगर तुम कभी भी
किसी से भी प्रेम करना
तो एक स्वीकार भाव रख
खुले मन से ज़रूर स्वीकार कर लेना
की तुम प्रेम में हो...

क्योंकि हर तर्क वितर्क से परे
ये स्वीकार भाव ही
प्रेम में प्रेमिल होने की
सबसे सुंदर और सरल
भाषा एवं विधा है!
</poem>
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