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निर्लज्ज फागुन / दीपा मिश्रा

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निर्लज्ज फागुन दुरूख्खामे बैसिके फाग गबैये
कहू त' हम कोना ओकर परिछन करी
नैहर सासुर दुनू अंगनाक मड़वा उदास अछि
कोन ठाम ओकरा लेल कतय पटिया ओछाबी!

बरख भरि सब ऋतु देहके छिलैत रहल
हरियर घाव एखनो ओहिना देखाइए
पुरबाक चोट ओकरा आरो बजबजा दैये
कोना सिमरक फूलक ओकरा पर मरहम लगाबी!

आँखिमे नोर भरने दुनू गोसाउनसँ नेहोरा करैत छी
आब बस ,जे अछि से कुशल रहे
एहि होरी कतौसँ काजर आनि
दुनू अंगनाकेँ डिठौना लगा दिए हे भगवती!

सहबाक सामर्थ्य आब जा रहल
एहन दिन ककरो नै देबै विधाता
फागुन हमरा फेर सोर पाड़ैये
हम नोर पोछैत उठिके दुआरि खोलि दैत छी
जे किछु भेल ताहिमे एकर कौन दोष!
</poem>
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