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<poem>
दुःखक भारसँ आहत भेल धरतीक छातीमे
जखैन दूध नहि शोणित उतरय लगैत छै
प्रलय अबैत छै!

ओ अबैत छै जखैन अपन सत्ताक मदमे चूर
अपन लोलुप नजरिसँ तकैत कोनो रावण
बरजोरी सीताक हरण क' अबैत छै
ओ तखनो अबैत छै जखैन निरपराध स्त्रीकेँ
आत्मसम्मान बचेबाक लेल भूमिमे शरण लिए पड़ैत छै!!

कंसक बेर बेर देवकीक कोमल शिशुकेँ
जन्मैत देरी पाथर पर पटकि पटकिके
मारल जेबासँ अकास फटै छै
आक्रान्त कनैत माएकेँ उद्धार लेल
भयातुर जन जातिकेँ रक्षा लेल प्रलय अबैत छै!

ऋतुचक्रमे एक वस्त्र लपेटने द्रौपदीक
केस पकड़ि जखैन भरल सभामे चीर
खेंचल जाइत छै
मूक भेल सभासदक नीचाँ खसल आँखि
जखैन अनुत्तरित भ' जाइत छै
पौरुष विहिन टूटल समाजक रीढ़केँ जोड़बाक लेल प्रलय अबैत छै!

एक बेर फेर समय संकेत द' रहल
चारूकात कनैत हाक्रोश करैत स्त्रीक
कानब सुनाइ पड़ि रहल
बुद्धिसँ मत दर्पसँ अहंसँ भरल समाजक
केवाड़केँ आब तोड़ब आवश्यक
बीतल समयमे बहल नोरक हिसाब चुकेबाक
लेल प्रलय आबि सकैये !

प्रलयक चलब ध्यानसँ सुनब
कहीं अहीं घरक बेटी त' नहि कानि रहल
आ अहाँके बुझलो नै
तैं समयके रथकेँ नहि रोकबाक प्रयास करब
नहि त' भरिसक कहिओ अहूँ सुनब
"अश्वत्थामा हतो नरो वा कुंजरो"
अहाँ सोचिते रहि जाएब
आर प्रलय सबसँ पहिने अहींक घर
लील जाएत !
</poem>
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