भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
{{KKCatKavita}}
<poem>
कभी वह थी चंचला नदी,
और मैं बेलगाम अरमानों वाली अल्हड़,
मैं खुश थी, नदी के किनारे की चट्टान होकर
एक दिन तुम आए और
मेरी देह का परिरम्भ कर, लांघ लाँघ गए सब सीमाएँ
तुम्हारा वह गंदला स्पर्श,
भाया नहीं था मुझे
उसकी देह से कोख, अंतड़ियों और दिल के साथ
निकाल ली थी तुमने मास–मज्जा तक उसकी
कई बार महसूस की थीं मैंने उसकी सिसकिया सिसकियाँ अट्टालिकाओं में
देखी थी कई बार मैंने
सड़कों की भीतरी सतह में आँसू बहाती, वह नदी
उसके पास नहीं थी कोई नदी, ख़ुद उसके जैसी
मैं उसकी सूनी छाती पर निढाल पड़ी
चुपचाप देखती उसके मुंह मुँह पर मैला कपड़ा रख
उसकी नाक का दबाया जाना
देखती उसका तड़पना एक-एक सांस साँस के लिए
मेरे कण–कण रेत हो जाने से
कहीं दुखकर थी उसकी वह तड़पन
नदी, जो सदियों छलकती रही थी किनारों से
पर इस सदी, शेष थीं बस चंद सांसें साँसें उसमेंदुर्गंध भरी, हाँफती, अंतिम, चंद सांसेंसाँसें
मैंने कितनी मिन्नतें की थीं तुमसे
भर दो कुछ सांस साँस उसके सीने में
अपने अधर रखकर उसके अधरों पर
लौटा दो उसकी सकल सम्पदा
जो बलात बलात् छीन ली थी तुमने
जो चाहो मेरे कणों तक का शेष रह जाना
तो खींच लो सिंगियाँ लगाकर
उसकी देह में फैला, सारा का सारा विष
सुनो,
नदी जी नहीं सकती विष पीकर;क्योंकि,
नदी नीलकंठ नहीं होती
नदी शिव नहीं होती।
</poem>