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पटरियाँ / नरेन्द्र जैन

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<poem>
इधर अक्सर भटकता रहता हूँ
मालगोदाम के आसपास
कई-कई दनों तक लगातार
लदता ही रहता है
गेहूँ मालगाड़ियों में
चारों तरफ़ फैली होती है
गेहूँ की गन्ध

दृश्य में सिर्फ़ गन्दुमी रंगत ही हुआ करती है
बीड़ी पीते, पसीना पोंछते, चमचमाते लोहे के
हुक को हाथ में लिए
हम्माल लादते ही रहते हैं बोरियाँ
क़स्बे से गुज़रती ही रहती हैं
मालगाड़ियाँ
सीमेंट, लोहा, कोयला और खाद होता है उनमें
अक्सर घण्टों खड़ी रहती हैं ये पटरियों पर

जिस मालगाड़ी में लदा होता है केला
रेलवे के लोग उसे केला स्पेशल कहते हैं
वह सीधे पहुँचती है अपने गन्तव्य पर
और राह में रोका नहीं जाता उसे

किसी मालगाड़ी के हर डिब्बे के द्वार खुले रहते हैं
और वहाँ जुगाली कर रही होती हैं भैंसें
मेर जैसे लोग पर्याप्त दिलचस्पी से
देखा करते हैं उन्हें
</poem>
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