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बापू / गरिमा सक्सेना

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<poem>
राजघाट पर चढ़ा रहे हैं
हम श्रद्धा के फूल
पर बापू को हम जीवन में
कब कर सके क़ुबूल

बापू के आगे नत हो बस
फोटो खिंचवाते
बापू के चश्मे से हम सब
देख नहीं पाते

बापू ऐसा ब्रांड बने जो
बापू के प्रतिकूल

चौराहों पर बापू की
प्रतिमाएँ रोती हैं
नंगे नर्तन की प्रतिदिन
घटनाएँ होती हैं

सत्य, अहिंसा, धर्म, न्याय
सब फाँक रहे हैं धूल

गाँधी टोपी सिर पर पहने
टोपी पहनाते
झोपड़ियों से छीन निवाला
कोठी बनवाते

तना बढ़ रहा, शाख बढ़ रही
मगर कट गया मूल

बापू के आदर्श पड़े हैं
बंद तिजोरी में
गाँठें ही गाँठें हैं
समरसता की डोरी में

कहाँ, कौन यह सोच रहा है
क्या है अपनी भूल
</poem>
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