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16:13, 24 दिसम्बर 2024 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=गरिमा सक्सेना
|अनुवादक=
|संग्रह=कोशिशों के पुल
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<poem>
आज तलक भी फटे हुए हैं
प्रेमचंद के जूते
‘सोज़े-वतन’ देखकर रोता
आज देश की हालत
पूँजी है जन की अधिनायक
करती कलम वकालत
छुई-मुई सब हो जाते हैं
सत्य-मर्म को छूते
अब भी गोबर नहीं समझता
झुनिया की लाचारी
अलगू, जुम्मन रोज़ कर रहे
दंगे की तैयारी
अब भी लाठी ज़ोर दिखाती
फूटतंत्र के बूते
बदल-बदल कर रूप सामने
खड़ा पूस का कंबल
होरी का गोदान अभी तक
खोज रहा जीवन-हल
प्रासंगिक दुख रहे हमेशा
पर सुख रहे अछूते
</poem>