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{{KKRachna
|रचनाकार=गरिमा सक्सेना
|अनुवादक=
|संग्रह=बार-बार उग ही आएँगे
}}
{{KKCatGeet}}
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<poem>
मंदिरों में,
घाट पर,
पूजाघरों में
प्रार्थनाओं से अधिक
अब सेल्फियाँ हैं
हो गये हैं तीर्थ
शॉपिंग मॉल जैसे
पिकनिकों का
एक अड्डा हो गये हैं
भाव के भूखे रहे
भगवान लेकिन
है दिखावा,
भाव ही ज्यों खो गये हैं
अब नहीं
श्रद्धा कहीं देती दिखायी
रील्स इंस्टा पर बना लो
मूर्तियाँ हैं
सात्विक्ता है नहीं
आराधना में
रेस्तरां हैं,
हर तरफ़ ठेले लगे हैं
दूर तक
बाज़ार की रंगीनियाँ हैं
चकाचौंधों से भरे
मेले लगे हैं
भीड़ है यह
या दिखावे की नदी है
इस नदी में
कुलबुलाती मछलियाँ हैं
भीगता तन
मन नहीं पर शुद्ध होता
आचमन की यह प्रथा
चलने लगी है
इस तरह से
दृश्य फूहड़ हो गये हैं
अब नदी भी स्वयं में
गड़ने लगी है
हो गये हैं
घाट ‘स्वीमिंग पूल’ जैसे
डुबकियों में
‘बीच’ जैसी मस्तियाँ हैं।
</poem>
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मंदिरों में,
घाट पर,
पूजाघरों में
प्रार्थनाओं से अधिक
अब सेल्फियाँ हैं
हो गये हैं तीर्थ
शॉपिंग मॉल जैसे
पिकनिकों का
एक अड्डा हो गये हैं
भाव के भूखे रहे
भगवान लेकिन
है दिखावा,
भाव ही ज्यों खो गये हैं
अब नहीं
श्रद्धा कहीं देती दिखायी
रील्स इंस्टा पर बना लो
मूर्तियाँ हैं
सात्विक्ता है नहीं
आराधना में
रेस्तरां हैं,
हर तरफ़ ठेले लगे हैं
दूर तक
बाज़ार की रंगीनियाँ हैं
चकाचौंधों से भरे
मेले लगे हैं
भीड़ है यह
या दिखावे की नदी है
इस नदी में
कुलबुलाती मछलियाँ हैं
भीगता तन
मन नहीं पर शुद्ध होता
आचमन की यह प्रथा
चलने लगी है
इस तरह से
दृश्य फूहड़ हो गये हैं
अब नदी भी स्वयं में
गड़ने लगी है
हो गये हैं
घाट ‘स्वीमिंग पूल’ जैसे
डुबकियों में
‘बीच’ जैसी मस्तियाँ हैं।
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