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|रचनाकार=गरिमा सक्सेना
|अनुवादक=
|संग्रह=बार-बार उग ही आएँगे
}}
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<poem>
चार दिनों से
रामदीन घर पर बैठा है
जाए भी तो
घर के बाहर जाए कैसे
लाड़-प्यार से
जिस बेटी को उसने पाला
सबसे लड़कर
कॉन्वेन्ट में कल था डाला
जिसके लिए लड़ा
घर में सबको समझाया
उसकी करनी
अब सबको समझाये कैसे
आज ग़लत जो
क़दम उठाये उसने अपने
भुगतेंगे परिणाम
न जाने कितने सपने
बेटी के पढ़ने की बात
बताता था जो
वह औरों को
आगे राह दिखाये कैसे
हार गया है रामदीन
अब अपने आगे
सोच रहा है
नहीं किसी की बेटी भागे
तोड़ गयी बिटिया
उसके साहस, ग़ुरूर को
भरे गाँव से आख़िर
आँख मिलाये कैसे?
</poem>
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चार दिनों से
रामदीन घर पर बैठा है
जाए भी तो
घर के बाहर जाए कैसे
लाड़-प्यार से
जिस बेटी को उसने पाला
सबसे लड़कर
कॉन्वेन्ट में कल था डाला
जिसके लिए लड़ा
घर में सबको समझाया
उसकी करनी
अब सबको समझाये कैसे
आज ग़लत जो
क़दम उठाये उसने अपने
भुगतेंगे परिणाम
न जाने कितने सपने
बेटी के पढ़ने की बात
बताता था जो
वह औरों को
आगे राह दिखाये कैसे
हार गया है रामदीन
अब अपने आगे
सोच रहा है
नहीं किसी की बेटी भागे
तोड़ गयी बिटिया
उसके साहस, ग़ुरूर को
भरे गाँव से आख़िर
आँख मिलाये कैसे?
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