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{{KKRachna
|रचनाकार=कृपाशंकर श्रीवास्तव 'विश्वास'
|अनुवादक=
|संग्रह=दहकेगा फिर पलाश / कृपाशंकर श्रीवास्तव 'विश्वास'
}}
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<poem>
सखा़वत की घड़ी जब-जब सुहानी लौट आती है।
चमक चेहरे पर मेरे ख़ानदानी लौट आती है।

यकीनन मुद्दतों के बाद भी जब उनसे मिलता हूँ,
मेरी आँखों में वह रंगत पुरानी लौट आती है।

बुढ़ापे में भी अक्सर ख्वाहिशें बूढ़ी नहीं होतीं,
बहार आते ही मौसम में जवानी लौट आती है।

सुना है चाँद पूनम का उतरता जब है पानी में,
यकायक ठहरे दरिया में रवानी लौट आती है।

लगाकर सीने से तस्वीर उनकी जब मैं सोता हूँ,
महक उनके बदन की जा़फरानी लौट आती है।

जिये बेलौस दुनिया में बशर ये ज़िन्दगी कैसे,
इसी नुक़्ते पर वापस हर कहानी लौट आती है।

बला की है कशिश ‘विश्वास’ उनकी मुस्कुराहट में,
नये तेवर में फिर से जिन्दगानी लौट आती है।
</poem>
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