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एक दिन / नेहा नरुका

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<poem>
एक दिन सब अपने-अपने जाने को परिभाषित करते हुए कहेंगे —
यह मेरी वृद्धि है
यह मेरे आज का सच है, वह मेरे कल का सच था
तब नहीं थी अक़्ल,
अब है
तब नहीं था दुनियादार,
अब हूँ ।

बदलाव अच्छा विचार है
पर सबका समुद्र की सबसे बड़ी मछली में बदलते जाना
डराता है ।

कोई एक,
जब सबकी ज़िन्दगी को,
अपनी मुट्ठी में बन्द कर रहा हो
तो डराता है ।

मन करता है
रोके उन्हें
पर वे कहते हैं
हमें क़ैद करने की कोशिश मत करिए
हम स्वतन्त्र हैं
हम नीले आसमान में उड़ना चाहते हैं
और हमें खुलकर उड़ने दीजिए ।

उड़ना किसे पसन्द नहीं होता !
हम भी उड़ना चाहते हैं

पर कोई आकाश ख़रीद कर ले तो उस आकाश में कैसे उड़ें हम
कोई आकाश में उड़ने वाले छोटे-छोटे पक्षियों को लहूलुहान कर दे
तो उस आकाश में किस तरह उड़ें हम
और कोई आकाश में टाँग दे पिंजरे ही पिंजरे
तो उस आकाश में कहाँ उड़ें हम

तय तो यह हुआ था कि हम साथ-साथ धरती को ख़ुशहाल बनाएँगे
पर साथ-साथ जैसा कुछ भी तो नहीं हुआ
धरती दुख से सूख गई

वे हमारे मन से उतरकर
देवताओं के घोड़ों पर बैठे और स्वर्ग की ओर भाग गए
और जाते-जाते कह गए
हम जीत गए
हम जीत गए ।

कल की चिन्ता कलेजा नहीं चीरती
कलेजा तब चिरता है
जब आज चीख़-चीख़ कर डराता है

यह डर न दिन में पीछा छोड़ता है, न रात में
कि सब जो आज साथ हैं कल छोड़कर चले जाएँगे
और इस तरह जाएँगे जैसे चले जाते हैं गधे के सिर से सींग ।
</poem>
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