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साथी / ऋचा दीपक कर्पे

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<poem>
सोचती हूँ,
मेरे कमरे की खिडकी से
झाँकता इठलाता चमकता
कभी घटता कभी बढता

कभी अदृश्य हो
अपना अस्तित्व सिद्ध करता
तो कभी पूर्णत्व के चरम पर आकर
धरती को अपने सौंदर्य से रिझाता
निरंतर उसकी परिक्रमा करता

रात के अंधेरे में अपनी महत्ता दर्शाता
और सूरज को तक
ढाँक लेने का सामर्थ्य रखता
वह चाँद …

अपनी उपलब्धियाँ किसे बताता?
अपने मन की किससे कहता?
सचमुच वह कितना अकेला होता !
गर उसके साथ कोई तारा न होता...
</poem>