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{{KKRachna
|रचनाकार=कृपाशंकर श्रीवास्तव 'विश्वास'
|अनुवादक=
|संग्रह=दहकेगा फिर पलाश / कृपाशंकर श्रीवास्तव 'विश्वास'
}}
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<poem>
न मख्मूरी कराती है, न मगरूरी कराती है।
बहुत से काम मुझसे मेरी मजबूरी कराती है।

पता चलने नहीं पाये लहू तन से निकल जाये,
सियासत हँस के अपनी ख्वाहिशें पूरी कराती है।

दबे कदमों से आहिस्ता उसूलों का हवाला दे,
अहलकारों से कितने काम दस्तूरी कराती है।

भरोसा आपको मुझ पर नहीं था साफ़ कह देते,
नजर शक वाली अपनों से बहुत दूरी कराती है।

अकेले फैसले लेते नहीं हैं आजकल के जज,
मदद हर फैसले में कुछ न कुछ जूरी कराती है।

छुपाकर एहतियातन खूबियाँ रखिये ज़माने से,
हिरन का क़त्ल उसकी अपनी कस्तूरी कराती है।

मजम्मत कीजिये ‘विश्वास’ उस दहलीज़ की हरदम,
जो लाचारों यतीमों से भी मजदूरी कराती है।
</poem>
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