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{{KKRachna
|रचनाकार=कृपाशंकर श्रीवास्तव 'विश्वास'
|अनुवादक=
|संग्रह=दहकेगा फिर पलाश / कृपाशंकर श्रीवास्तव 'विश्वास'
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<poem>
दे न उलझन ऐसी मालिक जिसका निपटारा न हो।
खु़दकुशी कर लें उजाले इतना अँधियारा न हो।

लालो गौहर गाँव के, जा कर शहर लौटे नहीं,
किसने सोचा गाँव का सूना ये गलियारा न हो।

हमको बस्ती में दिखा ऐसा न इक सीनःसिपर,
गम में जो रोया न हो जो वक़्त से हारा न हो।

भूलें पिछली भूल हम जायें, करो वादा अगर,
मालियों से बाग़ के वह काम दोबारा न हो।

रोयाँ रोयाँ जिस्म का अपना भरा है जोश से,
कौन-सी है जंग जिसमें हमने ललकारा न हो।

सीख पाया कोई दीवाना न अब तक ये हुनर,
गर नज़र टकरा भी जाये दिल ये आवारा न हो।

किसको शक है तेरे जल्वे पर बता दे ऐ बसन्त,
हाथ रख दे जिसके सर पर उसकी पौ बारा न हो।

जाने कितने मुल्क रोजाना ये करते हैं दुआ,
हिन्द जैसा दुनिया में ‘विश्वास’ बंटवारा न हो।
</poem>
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