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आपकी स्नेह भरी छांव छाँव को झुठलाती मैं
नन्हीं चिड़िया सी घर में इधर-उधर फुदक जाती मैं
पर
उसी छांव छाँव के सहारे पलती बढती
जाने कब हूई हुई घने वृक्ष जैसी बड़ी मैं
पता नहीं बीते कितने बरस
भूल गए सारे के सारे, पुराने पल
इस क्षण ऊंचे ऊँचे लोहे के जालीदार गेट को देख
मन क्यों अकुलाया
कोई जादूगर
ना , रोको नहीं मुझे
अभी क्षणांश में लौट आऊंगी
पर इस पल दौड़ जाने दो मुझे बाहें बाँहें फैलाए
फूली फ्राक के घेरे के संग-संग
बचपन कि कच्ची -पक्की गलियों में क्षण -भर
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