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लाड्डू / दिनेश शर्मा

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<poem>
करै बेइज्जती मां-बाबू की
बोलै कड़वी बाणी
मरणे पै लाडू करवावै
दे जीते जी ना पाणी

नौ मीने गर्भ मैं राख्खै
पाल्लै पोसें जी लाकै
भूखे रह पकवान खवावैं
जीवनभर करजा ठाकै
बाबू जोडै हाथ कई बै
साहूकार कै दर जाकै
कोई दुखी औलाद बिना
कोई औलाद नै पाकै
घणा भुण्डा आया बख्त
या घर-घर की कहाणी
मरणे पै लाडू।

मंदर मस्जिद धक्के खाए
जद तक थी औलाद नहीं
कहैं थे बाल्लकां पाच्छै
होवै ज़िन्दगी बरबाद नहीं
जिनकै ना होवैं बालक
मिलै मुबारकबाद नहीं
तरपण नहीं करै कोई
कुल रहता आबाद नहीं
निपूता समझ हकीकी हंसते
नीचां की तादाद नहीं
यू मरग्या तै मज़ा भतेरा
सारी दौलत म्हारे आणी
मरणे पै लाडू।
</poem>
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