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{{KKRachna
|रचनाकार=कृपाशंकर श्रीवास्तव 'विश्वास'
|अनुवादक=
|संग्रह=दहकेगा फिर पलाश / कृपाशंकर श्रीवास्तव 'विश्वास'
}}
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<poem>
आग धधकी है फलक तक कहकशां ख़तरे में है।
है जमी ख़तरे में सारा आसमां ख़तरे में है।

ख़त्म हैं हर सू हदें ये क्या हुआ इन्सान को,
दिख रहा इनसानियत का कारवाँ ख़तरे में है।

इससे पहले वक़्त ले करवट पहेली हल करो,
होश में आओ मुहब्बत की जबां ख़तरे में है।

कीजिये बेदार ख़ुद को जंग है सर पर खड़ी,
अपने पुरखों की मुकद्दस दास्ताँ ख़तरे में है।

सभ्यता शालीनता की उड़ रही यूँ धज्जियाँ,
लग रहा है आज ख़तरे का निशां ख़तरे में है।

जानवर से भी तो बदतर हो गया है आदमी,
आज आदमजाद की रूहे रवां ख़तरे में है।

आबरू-ए-मुल्क बचनी चाहिए हर तौर से,
मुल्क में बेटी, बहन ‘विश्वास’ माँ ख़तरे में है।
</poem>
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