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26 जनवरी {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=कृपाशंकर श्रीवास्तव 'विश्वास'
|अनुवादक=
|संग्रह=दहकेगा फिर पलाश / कृपाशंकर श्रीवास्तव 'विश्वास'
}}
{{KKCatGhazal}}
<poem>
कैसा चलन ये आज ज़माने में चल गया।
आई बहू तो हाथ से बेटा निकल गया।
रखते हो शर्त रोज़ नई कैसे हो सुलह,
लगता हमें है अब तो बहुत दूर हल गया।
हमको पता ये बात चली मुद्दतों के बाद,
हम जिसको छल रहे थे वही हमको छल गया।
कुछ बेहतरी की आपसे उम्मीद में हैं सब
जाने न पाये आज ये, जैसा कि कल गया।
वो मुस्कुराये ऐसे मिलाते हुये नजर,
करने का क़त्ल मेरा इरादा बदल गया।
हमने लगा के अपनी मुहब्बत को दाँव पर,
उगने दिया है चाँद को सूरज तो ढ़ल गया।
करिये सलाम वक़्त को ‘विश्वास’ बा अदब,
वरना मलेंगे हाथ अगर वक़्त टल गया।
</poem>