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|रचनाकार=कृपाशंकर श्रीवास्तव 'विश्वास'
|अनुवादक=
|संग्रह=दहकेगा फिर पलाश / कृपाशंकर श्रीवास्तव 'विश्वास'
}}
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<poem>
ख़त पुराने आशिकी के ताक पर से उड़ गये।
सारे चाहत के परिन्दे बामों दर से उड़ गये।

गाँव में आई शहर से चल के जब पक्की सड़क,
पूर्वजों के चिह्न प्रेरक हर डगर से उड़ गये।

बाग में सच्चे मुहाफ़िज़ अब कहीं दिखते नहीं,
सुर्ख़ पहरेदार सारे शाख़ पर से उड़ गये।

खोखले दावे सभी के ज़ुल्म पर काबू नहीं,
जुल्म से क्या लड़ने वाले सब शहर से उड़ गये।

थूनियों पर रह सके छप्पर सलामत कुछ मगर,
कुछ फ़क़त तूफान आने की ख़बर से उड़ गये।

थी मदद दरकार उनको हौसला जिनमें न था,
जिनमें जिन्दा हौसला था टूटे पर से उड़ गये।

अब मुहब्बत भी तिजारत बन गई ‘विश्वास’ है,
इश्क की तालीम वाले सब मदरसे से उड़ गये।
</poem>
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