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29 जनवरी {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=कृपाशंकर श्रीवास्तव 'विश्वास'
|अनुवादक=
|संग्रह=दहकेगा फिर पलाश / कृपाशंकर श्रीवास्तव 'विश्वास'
}}
{{KKCatGhazal}}
<poem>
सिर्फ़ कहते ही रहे ख़ुद को मदारी उम्र भर
जिन्दगी लेकिन जमूरे-सी गुज़ारी उम्र भर।
खुद लगाकर आग दौडेंगे बुझाने के लिए,
सीख पाये हम न ऐसी दुनिया-दारी उम्र भर।
तीर जिनका एक भी पहँुचा निशाने पर नहीं,
दर्ज खसरे में रहे फिर भी शिकारी उम्र भर।
चूमने उतरेगा सूरज मुझको गुलशन में ज़रूर,
सोचती ही रह गई शबनम कुंवारी उम्र भर।
मैकदा जब जाम में आया सिमट, क्या भोर थी,
फिर न दी हमने उतरने वह खुमारी उम्र भर।
अजदहाओ-शेर-नर काबू में उनके थे मगर,
कर न पाये नफ्स पर अपनी सवारी उम्र भर।
रुख बदलने का सबब ‘विश्वास’ ये जाहिर हुआ,
सिलसिला रखना नहीं था उनको जारी उम्र भर।
</poem>