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Kavita Kosh से
इक और बला ने घेर लिया, पहले से घिरे थे बलाओं में
गुलशन में गुलों से क्या शिकवा, काँटे भी तो मुझपर हंसते हैं
अब कोई हमारा कोई नहीं, अब कोई हमारा कोई 'रक़ीब'
ख़ुशियों से बहुत डर लगता है, रहते हैं ग़म की पनाहों में
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