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{{KKRachna
|रचनाकार=कृपाशंकर श्रीवास्तव 'विश्वास'
|अनुवादक=
|संग्रह=दहकेगा फिर पलाश / कृपाशंकर श्रीवास्तव 'विश्वास'
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<poem>
इलाही तूने बख्शा ये मुझे इनआम सावन में।
मेरे हिस्से जो आई मुस्कुराती शाम सावन में।

घटाओं को ही जब मंजू़र थी तातील सूरज की,
कहा हमने भी सूरज का भला क्या काम सावन में।

गुलाबी तितलियों ने भी मनाया जश्ने आज़ाद ी,
नदी नाले सभी इठलाये पीकर जाम सावन में।

ख़ुशी से झूमकर बरसात में हँसकर बनाया था,
किसी गोपी ने मुझको भी कभी घनश्याम सावन में।

लुटायीं ख़ूब मुझ पर खु़श्बुयें फूलों ने हैं अपनी,
चमन से मैं नहीं गुजरा कभी नाकाम सावन में।

कभी झूला गले में डाल दें जब मरमरीं बाँहें,
रुबाई कहने लगते हैं उमर खैयाम सावन में।

बला से तोड़ दे ‘विश्वास’ अपनी हद भले बारिश,
मगर छतरी न लेना तुम कभी भी थाम सावन में।
</poem>
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