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{{KKRachna
|रचनाकार=कृपाशंकर श्रीवास्तव 'विश्वास'
|अनुवादक=
|संग्रह=दहकेगा फिर पलाश / कृपाशंकर श्रीवास्तव 'विश्वास'
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<poem>
ऐब दुश्मन के वो दुनिया से छुपा लेता है।
जो भी मिलता है उसे अपना बना लेता है।

सिर्फ़ मालिक को मुसीबत में वो देता है सदा,
दर्द कितना भी हो मुश्किल से दवा लेता है।

ईद के रोज़ वसीयत के बहाने घर में,
अपने कुनबे को वो बाहर से बुला लेता है।

जब अँधेरे में डराती है उसे तन्हाई,
बिसरी यादों के चिरागों़ को जला लेता है।

शाम तुलसी के तले दीप जलाये घी का,
सुब्ह के वक़्त बगीचे की हवा लेता है।

उसकी नस नस में समायी है वतन की खुश्बू,
हल्फ़ के वक़्त तिरंगे को उठा लेता है।

उसको ‘विश्वास’ नहीं आये अदावत करना,
रूठने वाले को पल भर में मना लेता है।
</poem>
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