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{{KKRachna
|रचनाकार=कृपाशंकर श्रीवास्तव 'विश्वास'
|अनुवादक=
|संग्रह=दहकेगा फिर पलाश / कृपाशंकर श्रीवास्तव 'विश्वास'
}}
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<poem>
मकरो फ़रेब झूठ से उकता चुके हैं हम।
खुद के खिलाफ जंग में ख़ुद आ गये हैं हम।

अपनी जुबाँ से लफ़्ज़ निकलने से पेश्तर,
लफ्जों को अपने ख़ूब मियाँ तौलते हैं हम।

मुद्दत हुई तलाक मिले आज भी मगर,
तस्वीर उनकी छुपके अभी देखते हैं हम।

सारे हुकूक उनके उन्हें आज सौंप कर,
रुख ज़िन्दगी का सम्त नई मोड़ते हैं हम।

खु़द की बनाई राह चुनी हमने आज तक,
दुनिया कहेगी क्या ये नहीं सोचते हैं हम।

बस जीतनी है जंग मुहब्बत की इसलिये,
अपने उसूल आज सभी तोड़ते हैं हम।

मिलता है फिर भी साथ हमें उनका जब कभी,
फिर तो किसी से कुछ भी नहीं पूछते हैं हम।

सुन लें कि जितने लोग तबाही पसंद हैं,
बेख़ौफ उनका साथ यहीं छोड़ते है हम।

अनजान सच से मुल्क रहा दोस्त कल तलक,
‘विश्वास’ अपने होश में अब आ गये है हम।
</poem>
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