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<poem>
मौसम है प्रतिकूल, मगर फिर भी जीना है।
है अपनी ही भूल, मगर फिर भी जीना है ।

काट दिए सब पेड़, मिले अब साया कैसे ?
उड़े सड़क पर धूल, मगर फिर भी जीना है।

चाह रहे थे आम, फले बगिया में अपने,
बोते रहे बबूल, मगर फिर भी जीना है।

रहे सींचते सोच, सुगन्धित होगा उपवन,
निकले केवल शूल, मगर फिर भी जीना है।

ख़ुश होते हैं देख, शाख़ को दुनिया वाले,
नहीं देखते मूल, मगर फिर भी जीना है।
</poem>
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