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स्मृतियों की पातालपुरी में
लाल छींट की फ्रॉक पहन
फुदकने लगी आंगन आँगन में गौरया सी,
बगीचे से चुनकर तोड़ा एक लाल गुलाब
जूड़े में खोंस लिया
आईने में ख़ुद को देखते ही
शर्म से छुई-मुई हो गई.
कल रात उस औरत ने
आँसुओं को, क्षय को
कहीं कोई और न जान जाए
जल्दी-जल्दी पोंछ डाला मन के कैनवास से.
कल रात उस औरत ने
तमाम आयुष्काल से
फ़िर ख़ुद को परोस देने के दवाब को
परितृप्ति का आवरण उठा झिझकते हुए झाँका 
कल रात वह औरत
अचानक जाकर बैठ गयीगई
बचपन के तालाब किनारे
पानी में फेंकने लगी
भर-भर मुट्ठी अन्यमनस्कता
न जाने किसका इंतज़ार इन्तज़ार किया देर तक
साँझ होने पर उठकर चली आई
अनंत अनन्त मान-मनव्वल का खोमचा उठा रुआँसे से गढ़े आवास में.मे ।
कल रात उस औरत ने
घावों को सहलाकर पपड़ियाँ उखाड़ दीं
दुःखदुख, घाव, माया, मोह, भय और अफ़सोस को सेमल के की रुई की तरह उड़ा दिया आकाश में.
कल रात उस औरत ने
अस्थिर चहलकदमी चहलक़दमी की अपने हीं भीतर देह से लौटकर जाती गर्माहट को देख कुछ मुस्कुरायीमुस्कुराई
पृथ्वी को पुकार कर आगे बढ़ा दिया अपना नाम
और नाम के बगल में बनाकर एक कोष्ठक
बोली, अब मैं आज़ाद हूँ, आज़ाद हूँ.
कल रात वह औरत
हमेशा के लिए सो गयी निश्चिंत नींद गई निश्चिन्त नीन्द में
सुबह उसके नाम के बगल में
बना था सिर्फ़ एक कोष्ठक
जन्म और मृत्यु का साल लिखा था
उस कोष्ठक में.मे ।
'''मूल ओड़िया भाषा से अनुवाद : राजेन्द्र प्रसाद मिश्र'''
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