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{{KKRachna
|रचनाकार=गायत्रीबाला पंडा
|अनुवादक=राजेंद्र राजेन्द्र प्रसाद मिश्र
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<poem>
सोचती थी कि माँ से पुछूँगीपूछूँगी
अपने जीवन में एक औरत
अपने बारे में कब सोचती है!
मछली काटते-काटते पंसुली पँसुली से कते अंगूठे अँगूठे से बहने लगती है खून ख़ून की धार
वह सोचती, सुबह पहर
याद नहीं आया पति की शर्ट में
वह सोचती, बगीचे में
सहजन के पेड़ में निकले नए फूलों
और अमृतदान में फफून्देंफफून्दे
बेर का अचार धूप में सूखने की बात.
ठाकुर-घर में, तुलसी चौरे पर
वह सोचती है रात को क्या पकाएगी
जेठ की बेटी को दावत जो दी है मँगनी के बाद.बादख ।
एक औरत कब
अपने बारे में सोचती है
सोचती थी पुछूँगी पूछूँगी माँ से
क्योंकि जब मैं कुँवारी थी
सोचने को बहुत कुछ था मेरे पास
त्वचा में चमक लाने के लिए
नई प्रसाधन सामग्री
इत्यादि के बारे में.
तब नहीं जानती थी
जबकि दुनिया में
बहुत-सी बातें होती हैं
सिर्फ़ अपने हीं बारे में जानने की.
निस्संग समय में पलक झपकने-सा है
उसके मुस्कुराते रहने का
सर्वश्रेष्ठ निश्छल अभिनय
अपने अंदर अन्दर अपनी उपस्थिति को पसीने की गंध गन्ध सा
ढोते रहे हैं
उसकी उम्र के गली-गलियारे
और मैं हो जाती हूँ चकनाचूर.
और पूरी ज़िंदगी ज़िन्दगी में अगर एक भी बूँद बून्द आँसू बहाती है
वह औरत
किसी के देखने से पहले
क्यों हड़बड़ाकर पोंछ लेती है उसे
सोचती थी, पुछूँगी पूछूँगी माँ से! '''मूल ओड़िया भाषा से अनुवाद : राजेन्द्र प्रसाद मिश्र'''
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