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|संग्रह=अशोक अंजुम की हास्य व्यंग्य ग़ज़लें / अशोक अंजुम
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<poem>
रौब वर्दी का ज़माने को दिखाने निकले
कुछ पुलिसवाले बजारों में कमाने निकले

इक लुटेरे ने बहुत देर किया हंगामा
भर-मुहल्ले के सभी लोग जनाने निकले

है लोकतंत्र के जंगल में चुनावों की लहर
लो शिकारी शिकार फिर से फँसाने निकले

अजीब शय है ये कहते हैं जिसे आरक्षण
शिकार शेर को गीदड़ जी सिखाने निकले

जहाँ उम्मीद थी खाली रहीं वहाँ झोली
और गुदड़ी में कई बार खजाने निकले

तुड़ा के हड्डियाँ घर शाम को लौटे मजनूं
सुबह सँवर के जो लैला को पटाने निकले

कोई सुनता ही न था कोई समझता ही न था
हम भी कव्वों को कहाँ हंस बनाने निकले

लोग दरवाज़े पे’ साँकल लगा के बैठ गए
एक शाइर जो ग़ज़ल अपनी सुनाने निकले
</poem>
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