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|रचनाकार=ल्येफ़ क्रपिवनीत्स्की
|अनुवादक=वरयाम सिंह
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'''(कुछ भी इतना नहीं चुँधियाता जितनी अत्‍यधिक स्‍पष्‍टता — रवींद्रनाथ ठाकुर)

हुक्‍म हुआ — खड़े हो जाओ एक पंक्ति में !
बात साफ़ थी :
गुसलख़ाने से निकाल बाहर फेंकी गई
मेहनत से प्रशिक्षित अप्‍सराओं के
सम्‍मान को ठेस पहुँचाई गई थी ।
यह अन्त था एक जीवनी का ।

नकली अंग आसानी से अलग हुआ
अलग हुआ बिना किसी तकलीफ़ के
(जैसे पुराना तिल)
यही ठीक वक़्त है
मचान पर बैठ जाने का
गोलाबारी की गड़गड़ाहट के बीच !

भालू बाहर निकल आए
उदास और उमंगहीन,
प्‍लाईवुड के बैनर पकड़ रखे थे उन्‍होंने ।
पर किसे सन्देह होगा
कि मनोविज्ञान के एक दिवसीय पाठ्यक्रम में
गड़बड़ फैली थी —
सिद्धहस्‍त भेड़िया
साफ़ निकल आया था
(गवाहों की ज़रूरत नहीं)
किसी काम नहीं आया जाल का बिछाना ।

'''मूल रूसी से अनुवाद : वरयाम सिंह'''
</poem>
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