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|रचनाकार=नाज़िम हिक़मत
|अनुवादक=मनोज पटेल
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<poem>
कुर्सियाँ सोई हुई हैं अपने पायों पर
मेज़ की ही तरह
गलीचा लम्बा पड़ा है पीठ के बल
अपने बेलबूटों को थामे हुए
सो रहा है आईना
कसकर बन्द हैं खिड़कियों की आँखें
बाहर पैर लटकाए पसरी हुई है बालकनी
सामने की छत पर सोई पड़ी हैं चिमनियाँ
अकेशिया के फूल भी सोए हुए हैं फ़ुटपाथ पर
सो रहा है बादल
अपनी छाती पर एक सितारा लिए
रोशनी सो रही है, भीतर और बाहर की
तुम जग गईं मेरी जान
जाग गईं कुर्सियाँ
और भागने लगीं एक कोने से दूसरे कोने
मेज़ की ही तरह
उठकर बैठ गया ग़लीचा
धीमे - धीमे खोलता हुआ अपना रंग
भोर की झील की तरह जग गया आईना
अपनी बड़ी - बड़ी नीली आँखें खोल दी खिड़कियों ने
बालकनी जाग गई
और समेट लिए हवा में लटके अपने पैर
सामने की छत पर धुआँ निकलने लगा चिमनियों से
अकेशिया के फूलों ने गाना शुरू कर दिया फ़ुटपाथ पर
जग गया बादल
और अपनी छाती पर लगे सितारे को उछाल दिया हमारे कमरे में
जाग गई रोशनी भीतर और बाहर की
तुम्हारे बालों को झिलमिलाते हुए
वह फिसल पड़ी तुम्हारी उँगलियों से
और बाहों में भर लिया तुम्हारी निर्वसन कमर को,
उन गोरे पाँवों को तुम्हारे

मई 1960, मसक्वा

'''अँग्रेज़ी से अनुवाद : मनोज पटेल'''
</poem>
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