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|रचनाकार=तृष्णा बसाक
|अनुवादक=लिपिका साहा
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<poem>
जो कहूँ ईश्वर कहूँ, पिशाच सिद्ध हूँ
लाश का क़त्ल कर दलाली खाऊँ
निगलूँ, आयु निगलूँ ,स्नायु खा लूँ मन-मेधा
जतन से ग़ायब कर दूँ जितने थे दस्तावेज़ ।

ख़त्म होने पर बगीचे आम, चूसना गुठली बेकार
यह दुनिया है हत्याशाला, नहीं कहीं पारावार
लाशघर में स्वर्गसुख, रसिक ही ये जाने
बेकार ही चक्कर काट मरना, घातक की तलाश में
दर्पण में देखो ज़रा एक बार मुड़ के
पुराने शोणित की गन्ध बसन्त-समीर में ।

बेचो हाड़, बेचो मांस, बेचो मोहछाया
प्रेत के ही दाँत में तथापि लगी रहती है माया
जो कहूँ ईश्वर कहूँ तंत्र-साधना में
भ्रान्तिपुर में डूबने को, लाशें बहती जाएँ !

'''मूल बांग्ला से अनुवाद : लिपिका साहा'''
</poem>
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