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जीना भी है स्वीकार नहीं / डी. एम. मिश्र
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22 मार्च
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<poem>
जीना भी है स्वीकार नहीं
मरने को भी तैयार नहीं
जिस पर अपना अधिकार नहीं
उसकी कोई दरकार नहीं
सम्बन्ध भले सब ख़त्म हुए
पर, कैसे कह दूँ प्यार नहीं
हर पल करता हूँ याद उसे
बस करता हूँ इज़हार नहीं
जो चिंता में डूबा रहता
उस का संभव उद्धार नहीं।
मिलता ही नहीं तो त्यागी हूँ
पा जाऊँ तो इन्कार नहीं
दरपन पर थोड़ी धूल जमी
इस का मतलब बेकार
</poem>
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