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Kavita Kosh से
सच के तो हैं कम ही साथी
अधिक झूठ के संगी हैं
सभी जानते हैं सच क्या है
किन्तु बहुत लाचारी है
भौतिकता की अंध दौड़ में
स्वार्थ सत्य पर भारी है
स्याह भले कर्मों के चेहरे
पर सपने सतरंगी हैं
बात दूसरों की जब आए
गगन उठा तब लेते हैं
कहकर "नमक बराबर", अपना
झूठ पचा सब लेते हैं
सर्वत्र प्रचुरता मिथ्या की
सच की काफी तंगी है
चौसर के चौखाने में सब
नित्य गोटियाँ फिट करते
छल खरीदते, शुचिता देकर
बेशर्मी के पग धरते
चीर हरण कर डाला खुद का
छवियाँ सब अधनंगी हैं
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