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{{KKRachna
|रचनाकार=संतोष श्रीवास्तव
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|संग्रह=यादों के रजनीगंधा / संतोष श्रीवास्तव
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<poem>
चिड़िया धूल में नहाती
संकेत देती है वर्षा का
वर्षा चाहे कितनी भी
घुमड़,घुमड़ बरसे
नहीं मिटा पाती धूल को

पानी में भीगी धूल
वर्षा के विदा होते ही
सूरज से ताप पा
अंगड़ाई ले
फिर दौड़ने लगती है
हवा के संग

घर का कोना-कोना
हर सामान ,असबाब पर
धूल आराम फरमाती है
कितना ही झाड़ो,फटकारो
उड़कर फिर बैठ जाती है
वहीं की वहीं

माथे पर पसीने की बूंदों में
जब धूल समाती है
तब सार्थक होता है श्रम
धूल में नहा कर ही
आदमी आदमी कहलाता है

आंधी ,बारिश ,ओले में
आकार खोते पर्वत
धूल को पा फिर
छूने लगते हैं ऊँचाइयाँ

पाषाण युग से अब तक
जाने कितनी कथाओं को
समेटे धूल
पर्वतों से उतरकर ,झरनों,
नदियों संग बहती
आदमी को
सुनाती रहती है
बीती कथाओं का जादू
जिनमें होते हैं
हमारे पूर्वजों के अवशेष,
आस्था और विश्वास
धूल का कोष
बहुत समृद्ध है
इस धरती पर
</poem>
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