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{{KKRachna
|रचनाकार=संतोष श्रीवास्तव
|अनुवादक=
|संग्रह=यादों के रजनीगंधा / संतोष श्रीवास्तव
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<poem>
आज पर्यावरण दिवस पर
याद आ रही है
सदियों से
चली आ रही प्रथा
वृक्षों को पूजने की

सजते हैं द्वार पर
पत्तों के बंदनवार
मंगल कामना के
आम की लकड़ियाँ
हवन में आहुति समेट
करती है आव्हान
देवताओं का
पूजा का कलश
पवित्र हो जाता है
पत्तों की शैया से

कुछ प्रथाएँ समाज को
करती हैं विकलांग
तो कुछ हैं जीवन का आधार
लेकिन बढ़ावा मिलता है
कुप्रथाओं को
सती प्रथा ,दहेज प्रथा ,
कन्यादान, बाल विवाह
और पितृसत्ता से जुड़ी
तमाम प्रथाएँ
जो स्त्री को
कमजोर करती हैं

कुप्रथाएँ पनपती हैं
सुप्रथा
दम तोड़ने लगती हैं
</poem>
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