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|रचनाकार=कुंदन सिद्धार्थ
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<poem>
आजकल
एक हड़बड़ी-सी लगी रहती है
सब कुछ निपटा लूँ जल्दी-जल्दी
जो भी दायित्व है
हो जाऊँ जल्दी निर्भार

पत्नी टोकती है
क्या-कुछ सोचते रहते हैं हमेशा
हड़बड़ाकर मुस्कराता हूँ

कैमरे की तरफ़ देखिए पापा
मम्मी के थोड़ा और करीब आइए
बेटी की मनुहार सुन हड़बड़ी में कैमरे की तरफ़ देखता हूँ
हड़बड़ाकर पत्नी के थोड़ा और करीब हो जाता हूँ

पहले तो ऐसा नहीं था
कब लगी मुझे यह आदत
हड़बड़ी में सोचता हूँ

पिता होते तो पूछता
कुछ राय-मशवरा करता
वह हँसते इस संयोग पर
उन्हें भी हर काम में रहती थी हड़बड़ी
इसी हड़बड़ी में एक शाम अचानक
चुप हो गये हमेशा के लिए
हम हाथ मलते रह गये

पत्नी देखती है
तभी से आया है मुझमें बदलाव
तभी से लगी है हड़बड़ी में जीने की आदत
और उदास हो जाती है
हड़बड़ी में लिखता हूँ कविता
</poem>
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