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<poem>
जीने के बाद अब तो फ़क़त मर रहा हूँ मैं
जो काम अपने हाथ है वह कर रहा हूँ मैं

आती नहीं है मौत तो मेरा भी क्या कसूर
कोशिश तो ख़ुदकुशी की बहुत कर रहा हूँ मैं

अब तो दिखा तू जिस्म से बाहर का रास्ता
ता-उम्र इसकी क़ैद के अन्दर रहा हूँ मैं

ठुकरायेगी मुझे भी किसी रोज़ ज़िन्दगी
इक बेवफ़ा-सी चीज़ पर क्यों मर रहा हूँ मैं

तुम लोग जिसको हुस्न-ए-ग़ज़ल कह रहे हो आज
मुद्दत से उसकी रग में लहू भर रहा हूँ मैं
</poem>
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