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|संग्रह=अशोक अंजुम की ग़जलें / अशोक अंजुम
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<poem>
वे मुझसे ये कहते हैं
आप तो अब तक बच्चे हैं

हम तो बिल्कुल अच्छे हैं
आप बताएँ कैसे हैं

जितने लदे-फदे हैं हम
उतने ज़्यादा टूटे हैं

राजनीति की मंडी में
सब पर खोटे सिक्के हैं

संडे को मत घर आना
घर पर पापा रहते हैं

बाहर खुले-खुले हैं हम
घर के भीतर पर्दे हैं

दो-दो पैग लगा लें चल
तुझ पर कितने पैसे हैं?

अब वादों से तौबा कर
हम मुश्किल से संभले हैं

रजधानी की झोली में
अनगिन ख़्वाब सुनहरे हैं

जो करना है जल्दी कर
घर पर भूखे बच्चे हैं

कहता हूँ घर तो आओ
ख़ुशियों के सौ नखरे हैं
</poem>
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