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<poem>
किसी की चाह में घर छोड़ कर चला आया
खड़ा हूँ राह में घर छोड़ कर चला आया

मेरा नसीब रहूँ दर-ब-दर या दर पर तेरे
तेरी ही ख्वाह में घर छोड़ कर चला आया

रहूँ मैं दश्त में सहरा में या मैं कुटिया में
कि खानकाह में घर छोड़ कर चला आया

ये है रजा तेरी तू अब मुझे लगा ठोकर
या रख निगाह में घर छोड़ कर चला आया

सिवा तेरे न नज़र आए कोई और मुझे
शबे सियाह में घर छोड़ कर चला आया

हुआ क़रार था हम तुम में साथ रहने का
इसी निबाह में घर छोड़ कर चला आया

हरेक सिम्त तेरा ही तो नूर फैला है
तेरी पनाह में घर छोड़ कर चला आया
</poem>
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