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31 मार्च {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=सत्यवान सत्य
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<poem>
दूर नजरों से वह चेहरा हो गया
जख्म गहरा और गहरा हो गया
दो निवाले तब हकूमत ने दिए
भूख से जब तन इकहरा हो गया
सूखकर मैं रंजो ग़म की धूप में
देख लो अब तो छरहरा हो गया
हुस्न ने जब दी सजा तो याद सब
इश्क का मुझको ककहरा हो गया
सुनती है दिल्ली भी ऊँचा आजकल
लग रहा है शाह बहरा हो गया
अब चमन में हर भँवर आज़ाद है
पर गुलों पर आज पहरा हो गया
दिल में अहसासात सारे मर गए
और मैं वीरान सहरा हो गया
</poem>