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<poem>
तमाम घर को अकेला ही आप ओढ़े हुए
हताश बैठा है कोने में बाप ओढ़े हुए

लगी है आग यकीनन गुबार निकलेगा
चढ़ा है आग पर पानी जो भाप ओढ़े हुए

हरेक लफ़्ज़ सुनोगे जो दिल के साजों पर
ग़ज़ल मिलेगी ग़मों का अलाप ओढ़े हुए

नसीब है किसी को इश्क़ में मिला सहरा
कोई लटक गया पंखें से शाप ओढ़े हुए

रहेगी इश्क़ के होठों पर इक हँसी हरदम
मगर मिलेगा वह अंदर विलाप ओढ़े हुए

मेरे ग़मों का असर है कुछ इस क़दर छाया
उदास बैठे हैं मुझको ही आप ओढ़े हुए

गुजर गई हैं बहारें करीब से होकर
मैं बैठा हूँ तेरे ही ग़म का ताप ओढ़े हुए
</poem>
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