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<poem>
हुस्न शीरीं-सा परीजाद हुआ जाता है
इश्क मेरा भी ये फरहाद हुआ जाता है

गर न महबूब न ही दोस्त वह न अदू मेरा
नाम क्यों उसका मुझे याद हुआ जाता है

जीस्त के जाल में उलझा हुआ कोई पंछी
जिस्म की क़ैद से आज़ाद हुआ जाता है

हाँ वही शख़्स जो हर बात का कायल था कभी
आज वह ही मेरा अज्दाद हुआ जाता है

ऐब जिसमें थे हजारों कभी दुनिया वालो
वक्त बदला तो वह नक्काद हुआ जाता है

अब वही पीर ख़ुदा वह ही है मौला मेरा
दिल मेरा उस का ही सज्जाद हुआ जाता है

उस के सजदे में मैं हर वक़्त खड़ा रहता हूँ
उसका हर लफ़्ज़ अब इरशाद हुआ जाता है
</poem>
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