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|रचनाकार=नाज़िम हिक़मत
|अनुवादक=सुरेश सलिल
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<poem>
हम ख़ूबसूरत दिन देखेंगे, बच्चो
हम देखेंगे धूप के उजले दिन ...
हम दौड़ाएँगे, बच्चो, अपनी तेज़ रफ़्तार नावें
खुले समन्दर में
हम दौड़ाएँगे उन्हें चमकीले, नीले, खुले समन्दर में ...

ज़रा सोचो तो पूरी रफ़्तार से जाती
पहलू बदलती हुई घरघराती हुई मोटर में
ज़रा सोचो तो कौन बदल सकता है, भला,
सौ मील की रफ़्तार से लिए गए
बोसे के बेमिसाल एहसास को

सच है कि आज हमें
शुक्रवार और इतवार को
बाग़-बगीचों में जाने का मौक़ा हाथ आता है
सिर्फ़ शुक्रवार को
सिर्फ़ इतवार को ...

सच है कि आज
हम रौशनी से नहाई सड़कों पर
शो-रूमों को ऐसे ताका करते हैं
जैसे कोई परीकथा सुन रहे हों,
शीशे की दीवारों वाले
सतहत्तर मंज़िल ऊँचे वे शो-रूम !

सच है कि जब हम जवाब माँगते हैं
तो काली-मनहूस किताब खुल जाती है हमारे लिए :
जेलख़ाना ।
चमड़े की पेटियाँ अपनी गिरफ़्त में ले लेती हैं
हमारी बाँहें
टूटी हुई हड्डियाँ
ख़ून

सच है कि आज हमारे खाने की मेज़ पर
गोश्त हफ़्ते में एक बार होता है सिर्फ़
और हमारे बच्चे
काम से फ़ारिग़ होकर
खाल मढ़े हड्डियों के ढाँचे जैसे
वापस लौटते हैं घर ...

सच यही है फ़िलहाल
लेकिन यक़ीन लाओ मुझपर
हम ख़ूबसूरत दिन देखेंगे, बच्चो !
हम देखेंगे धूप के उजले दिन
हम दौड़ाएँगे, बच्चो, अपनी तेज़ रफ़्तार नावें
खुले समन्दर में
हम दौड़ाएँगे उन्हें चमकीले, नीले, खुले समन्दर में ...

''' अँग्रेज़ी से अनुवाद : सुरेश सलिल'''
</poem>
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