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13 अप्रैल {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=आकृति विज्ञा 'अर्पण'
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<poem>
थोड़ी मुश्किल ज़्यादा है पर
धीर धरेंगे हल कर लेंगे
हार मान लें हम मुश्किल से
यह बिल्कुल आसान नहीं है...
तपने में तपने का सुख है
बुझ जायें हम कहाँ ये संभव
जो पी लेता भाव समंदर
वो क्या देखे तत्सम तद्भव
अनुवादों में नहीं जिये हम
अस्ति में अवसान नहीं है...
पसरी कुछ पीड़ा को मन मेंब
अनघा शोर मचाने दो
बादल के जैसे बन बन कर
चिंता को छा जाने दो
किस मिट्टी के बने हुये हम
संकट को अनुमान नहीं है...
नैन ढरकना भूले सूखे
पढ़ते रहते ख़त आँसू के
खुद को ख़ुद के वश में करके
अपनी पीड़ा ख़ुद हम हरते
मान लिया आँसू ने उसपर
अब विशेष अवधान नहीं है...
बाधाओं की अनगिन राहें
फैलाती हैं अपनी बाहें
हम ना ठहरे वश में उनके
रोक सकेंगी कितनी राहें
हमें रोकने में भी पीड़ा
किसी तरह कल्याण नहीं है...
देह में हमको सीमित कर ले
ऐसा कोई मंत्र नहीं है
समझौता ही समझौता हो
अपना ऐसा तंत्र नहीं है
कैसै सुख का हो अभिनंदन
दुःख को भी यह भान नहीं है...
हार मान लें हम मुश्किल से
यह बिल्कुल आसान नहीं है...
</poem>
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