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|रचनाकार=अभिषेक कुमार सिंह
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<poem>
कर देगा मुग्ध आपको खिलना पलाश का
मैं क्या सुनाऊँ आपको किस्सा पलाश का

सुस्ता रहे हैं धूप की डोली के सब कहार
सड़कों पर बिछ गया है बिछौना पलाश का

चलती है जब बसंत में आकर्षणों की रेल
चलता है साथ-साथ ही इक्का पलाश का

अंधा विकासवाद कहीं चीर ही न दे
आरी पर है रखा हुआ सीना पलाश का

जीवन के इस अरण्य के उजड़े दयार में
होना तुम्हारा लगता है होना पलाश का

माना कि है हसीन गुलाबों का रंग-रूप
लेकिन मुझे पसंद है चेहरा पलाश का

मरते हुये मनुष्य को समझाये कौन अब
कितना ज़रूरी है यहाँ जीना पलाश का
</poem>
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