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17 अप्रैल {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=अभिषेक कुमार सिंह
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प्रश्न है अब भी खड़ा यह आदमी के सामने
हैसियत क्या है हमारी त्रासदी के सामने
मैं अँधेरे में जहाँ हूँ रौशनी के सामने
हँस रहा है एक होटल झोपड़ी के सामने
वक्त है ध्यानस्थ योगी की तरह बैठा हुआ
धुंध का ताबीज लटका है सदी के सामने
खुद घिरा फाकाकशी में सोच कर बेचैन हूँ
कोई भूखा आ न जाये देहरी के सामने
गाँव की गलियाँ शहर से जब मिली तो यूँ लगा
धूल का घूँघट उठा हो अजनबी के सामने
वक्त बदला, लोग बदले दृश्य लेकिन है वही
मौन हैं सारे धनुर्धर द्रौपदी के सामने
कल सुबह सूरज निकल आएगा लेकिन आज क्या?
आज ख़ुद जलना पड़ेगा तीरगी के सामने
</poem>