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17 अप्रैल {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=अभिषेक कुमार सिंह
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<poem>
पीड़ा का स्वर घुट-घुट कर मर जाता है
कितना निर्मम शहरों का सन्नाटा है
टूट ही जाती है अरमानों की कुर्सी
निर्धनता का दीमक जब लग जाता है
बहरी सत्ता को आख़िर बतलाए कौन
संवैधानिक पद की कुछ मर्यादा है
बाधित करती है उन्मुक्त उड़ानों को
उड़ता पंछी कब दुनिया को भाता है
थोड़ा-सा अंतर है केवल कपड़ों का
प्यार तपस्या का ही इक पहनावा है
पूछ रही है मुझसे मेरी ख़ामोशी
कौन अकेला इस निर्जन में गाता है
इक साधू की आँखें पढ़कर जान सका
मौन की भाषा सबसे सुंदर भाषा है
</poem>